मैं भारत हूँ! निःशब्द हूँ…
आजादी का अमृत महोत्सव मनाने वाले ही मेरा चीरहरण कर रहे।

लखीमपुर: लालकिला की प्राचीर से देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आजादी के 75वें वर्ष को पूरे वर्ष अमृत महोत्सव मनाने का आवाह्न किया। पूरे देश में शहर शहर, गाँव गाँव मुगलों और अंग्रेजों ने देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने के साथ साथ संस्कृति और विरासत में विकृतियां पैदा की ताकि यहाँ की संस्कृति को गुलाम बनाकर सदियों तक संसाधनों का दोहन किया जा सके और काफी हद तक वह सफल भी रहे है। इसी परंपरा को आगे बढ़ने का काम भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं ने किया और कर रहे है। भारत में भ्रष्टाचार कोई नया रोग नहीं है और न ही उस पर चर्चा, चिंता और चिंतन करना कोई नयी बात है। भ्रष्टाचार का अर्थ है भ्रष्ट यानी बुरा आचरण और मानव जीवन के प्रारंभ से ही किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार समाज का हिस्सा रहा है।
विश्व इतिहास भ्रष्टाचार के विरुद्ध किये गये आन्दोलनों से भरा है दुनिया भर के लगभग सभी राजनीतिक दलों ने भ्रस्टाचार का अंत करने की शपथ खाकर ही अपने कैरियर का आरंभ किया होगा।
लेकिन फिर ऐसा क्या है कि सभ्यतायें नष्ट हो गयीं, युग परिवर्तन हो गये, सत्तायें आयीं और गयीं लेकिन उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षिणी ध्रुव तक भ्रष्टाचार एक ध्रुव सत्य की तरह सभ्य समाज की परिकल्पना पर कलंक बना रहा।
भूख, मजबूरी, गरीबी से अधिक तृष्णा, लालच, स्वार्थ, मोह, भोग विलास आदि भ्रष्टाचार के प्रमुख कारण रहे हैं। इच्छाओं का ज्यादा होना, भौतिक सुखों की अंतहीन प्रतिस्पर्धा, दूसरों के सामने विशेष या महत्त्वपूर्ण दिखने की होड़, 7 पीढ़ी तक के सुख- वैभव की व्यवस्था करना और व्यभिचार आदि कारण हैं जो धनी-समृद्ध व्यक्तियों को भी सहजता से भ्रष्ट बना देते हैं, बात करें भारत की तो लगभग हर सरकार के कैनवास पर भ्रष्टाचार एक बदनुमा दाग की तरह अपने निशान छोड़कर गया।
21 दिसम्बर 1963 को भारत में भ्रष्टाचार के खात्मे पर संसद में हुयी बहस में डॉ० राम मनोहर लोहिया का भाषण आज भी प्रासंगिक है, उन्होने कहा था सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत में जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनिया के इतिहास में कहीं नहीं हुआ है।
दिन के साथ रात और प्रकाश के साथ अंधकार की तरह भ्रष्टाचार भी हर सरकार, सत्ता और समाज का सच बना रहा। वास्तव में भ्रष्टाचार पूरी दुनिया में एक समानांतर व्यवस्था बन चुका है।
इस तमस का अपना एक बड़ा सम्राज्य है, अपनी एक मजबूत व्यवस्था है.. जो सदैव ये ही चाहती है कि अंधेरा कायम रहे। ये सुसंगठित व्यवस्था नीति, नियम, न्याय, नैतिकता को ताक पर रखकर एक मजबूत नैक्सस बनाकर कानून को कठपुतली की तरह नचा रही है।
सामाजिक चिंतकों की चिंता है कि ये व्यवस्था रक्तबीज की तरह हर दिन ताकतवर हो रही है और दीमक की तरह समाज को खोखला कर रही है। इसलिये यदि भ्रष्टाचार को समाप्त करना है, तो अंधकार की इस व्यवस्था पर नकेल लगानी होगी, इतिहास साक्षी है जब जब भ्रष्टाचारियों की व्यवस्था मजबूत हुयी है तब-तब किसी कृष्ण ने एक अर्जुन को खड़ा किया है।
भारतीय संस्कृति “तमसो मा ज्योतिर्गमय” का सूत्र और प्रेरणा देती है। तिमिर की सल्तनत को कभी सूरज ने तो कभी जुगनुओं ने चुनौती दी है। तमस के जंगल में कभी-कभी जुगनू भी अपनी ज्योति से अंधकार के राज को खुली चुनौती देता है।
अंधकार पर चर्चा करने से बेहतर है कि आलोक बनने का प्रयास किया जाये.. हम सूरज भले ही ना हों लेकिन जुगनू बनकर ही तम की छाया से अपने समाज को बचाते रहें।
हम मील का पत्थर न बन सकें तो क्या, देश के विकास में रोड़े बने पत्थरों को थोड़ा-थोड़ा हटाते तो रहें। हम कोई बड़ी जीत ना भी लिख पायें तो कोई बात नहीं, हम अगली पीढ़ी के लिये प्रेरणा तो बन ही जायें। भ्रष्टाचार के खिलाफ जीत के लिये जरूरी है कि उस व्यवस्था और उस व्यवस्था का प्रबंधन कर रहे तत्वों के विरुद्ध अपने अपने तरीके से जंग छेड़ी जाये जो पर्दे के पीछे से किसी न किसी तरह उसका पोषण एवं सरंक्षण कर रहे हैं, क्योंकि बुराई देखकर भी चुप रहना ही बुराई की जीत की अहम कड़ी होती है। हमारे छोटे छोटे प्रयास भी जिंदगी में बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं। हम सूक्ष्म जुगनू ही सही लेकिन साथ मिलकर इस अंधकार को हरा सकते हैं।