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क्या जेडीयू और आरजेडी की दोस्ती बीजेपी के लिए खतरा है?

  • 74 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने 43 सीटों वाले नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया
  • नीतीश के मना करने पर पीएम मोदी चुनाव प्रचार में बिहार नहीं गए
  • फिर भी नीतीष ने दगाबाजी की और बीजेपी का साथ छोड़ दिया
  • अब सवाल ये है कि क्या नीतीष के बिना बीजेपी बिहार का किला भेद पाएगी?
  • नीतीश की दगाबाजी के बाद क्या कदम उठाएगी बीजेपी
suyash mishra
suyash mishra

Lucknow. बीजेपी विपक्ष के बढ़ते कुनबे को कमजोर नहीं समझ रही। साल 2024 में लोकसभा चुनाव हैं। बिहार की दो सबसे ज़्यादा प्रभुत्व वाली ओबीसी जातियां यादव और कुर्मी के दोनों नेता नीतीष और लालू अब एक साथ हैं. इसके अलावा इन दोनों के साथ होने से मुसलमानों के वोट बँटने की आशंका भी ख़त्म हो गई है. वामपंथी पार्टियों का भोजपुर और मगध में दलितों के बीच आज भी प्रभाव है। ऐसे में बिहार में विपक्ष का कुनबा काफ़ी बड़ा हो गया है। इस बार के महागठबंधन में आरजेडी, जेडीयू, कांग्रेस, वामपंथी पार्टियों के साथ जीतन राम मांझी भी षामिल हैं। ऐसे में बीजेपी की मुष्किलें बढ़ रही हैं।

नीतीश कुमार के बीजेपी छोड़ने के बाद बिहार में एनडीए अब न के बराबर बचा है. पशुपति कुमार पारस के धड़े वाले लोक जनशक्ति पार्टी को छोड़ दें तो बिहार में बीजेपी के साथ अब कोई प्रमुख पार्टी नहीं बची है। चिराग पासवान के धड़े के एकलौते विधायक राजकुमार सिंह पिछले साल ही जेडीयू में शामिल हो गए थे. इसके अलावा उपेंद्र कुशवाहा भी अपनी पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का जेडीयू में विलय कर चुके हैं। जातियों में बँटे बिहार की राजनीति में बीजेपी के लिए जगह बनाना अब आसान नहीं है. बीजेपी को पता है कि उसके लिए बिहार में जेडीयू का साथ कितना जरूरी था। इसे इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि बीजेपी ने 2020 के विधानसभा चुनाव में 74 सीटें जीतने के बावजूद 43 सीटों वाले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया। यह बीजेपी की मजबूरी को ही दर्शाता है। पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद तो एक बार सवाल भी कर चुके हैं कि नीतीष को लेकर बीजेपी इतना मजबूर क्यों हैं?

2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती और अखिलेश यादव का गठबंधन बीजेपी के सामने नाकाम रहा था। अब सवाल यह भी है कि बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव का गठबंधन कामयाब क्यों रहेगा? यूपी और बिहार की राजनीति अलग है। हिन्दुत्व का ज़ोर यूपी में रहता है. बिहार में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं हो पाता है.। दरअसल बिहार में अगड़ी जातियों का प्रतिषत यूपी की अपेक्षा कम है। ऐसे में बिहार जातियों में बट जाता है। जिसका सीधा फायदा क्षेत्रीय दलों को मिलता है।

साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार आरजेडी और कांग्रेस के साथ उतरे थे. इसे ही तब महागठबंधन कहा गया था. महागठबंधन को 243 में से 178 सीटों पर शानदार जीत मिली थी जबकि बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए 58 सीटों पर ही सिमटकर रह गया था. इसलिए बीजेपी को पता है कि नीतीश कुमार का साथ होना, उसके लिए सत्ता की राह तय करता है. केंद्रीय नेतत्व जानता है कि नीतीष के विद्रोह से बिहार बीजेपी की बयार को रोक सकता है। बिहार के किले को भेदने के लिए बीजेपी को अब एक अभिमन्यू की तलाष है। जो जातियों में बँटे बिहार को धर्म के धागे में पिरो सके। लेकिन ये अभिमन्यू कौन होगा ये बड़ा सवाल है।

ब्यूरो रिपेार्ट समग्र चेतना लखनऊ

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